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मंगलवार, 6 नवंबर 2018
शनिवार, 3 नवंबर 2018
शुक्रवार, 2 नवंबर 2018
कविता - दादी माँ की स्मृति में
ठीक आज से दो वर्ष पूर्व
ज्यों रवि था होने को अस्त
खड़ा काल था कर्म प्रशस्त
अम्बर में टूटती हुई रश्मियाँ
कुछ संकेत कर रहीं थीं
आज जग का समस्तदुःख
हमारे निकेत में भर रहीं थीं
हे! ममतामयी हे! गृहजननी
तुम्हारी साँस छूट रही थी
जो थे खड़े सब सम्मुख
तुम्हारे उनके नयन-सिन्धु से
अश्रु की लहरें फूट रही थीं
फिर गंगाजल का पान किया
जाने का सबको भान दिया
अवनि को करती हुई नमन
किया भानु संग सुरधाम गमन
हे!पितामही ये शुभम कहता है
रवि संग जो जाता होगा
अवश्य बैकुंठ ही पाता होगा...
©शुभम कहता है...
तुम जो आती कमल से नयन दो लिए....
तुम जो आती कमल से नयन दो लिए,
लग रहे हैं ये ऐसे की रति हो प्रिये।
चल रहे ये कदम भी थम से गए,
जैसे ऐसा लगा हम दम से गए।
तेरे(कारे) नयनों के जंगल मे ऐसे फँसे,
जैसे भू से कोई स्वर्ग में जा बसे।
चंद्र ने अब तुम्हारे मुख धुल दिए,
मुख है या स्वयं चंद्र ही हो लिए।
तुम जो आती कमल से नयन दो लिए,
लग रहे हैं ऐसे की रति हो प्रिये।
तुम आती हो ऐसी मगन सी हुई,
जैसे धरती की बातें गगन से हुई।
फिर जो अम्बर उड़ा तो उड़ा ही रहा,
मैं खड़ा था खड़ा का खड़ा ही रहा।
तुम जाती रही दृग से भी परे,
मैं भी पीछे मुड़ा यों संग हो लिए।
तुम जो आती कमल से नयन दो लिए,
लग रहे हैं ये ऐसे की रति हो प्रिये।
लग रहे हैं ये ऐसे की रति हो प्रिये।
चल रहे ये कदम भी थम से गए,
जैसे ऐसा लगा हम दम से गए।
तेरे(कारे) नयनों के जंगल मे ऐसे फँसे,
जैसे भू से कोई स्वर्ग में जा बसे।
चंद्र ने अब तुम्हारे मुख धुल दिए,
मुख है या स्वयं चंद्र ही हो लिए।
तुम जो आती कमल से नयन दो लिए,
लग रहे हैं ऐसे की रति हो प्रिये।
तुम आती हो ऐसी मगन सी हुई,
जैसे धरती की बातें गगन से हुई।
फिर जो अम्बर उड़ा तो उड़ा ही रहा,
मैं खड़ा था खड़ा का खड़ा ही रहा।
तुम जाती रही दृग से भी परे,
मैं भी पीछे मुड़ा यों संग हो लिए।
तुम जो आती कमल से नयन दो लिए,
लग रहे हैं ये ऐसे की रति हो प्रिये।
©शुभम कहता है...
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रश्मि-राग
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