यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

कविता - दादी माँ की स्मृति में

ठीक आज से दो वर्ष पूर्व
ज्यों रवि था होने को अस्त
खड़ा काल था कर्म प्रशस्त
अम्बर में टूटती हुई रश्मियाँ
कुछ संकेत कर रहीं थीं
आज जग का समस्तदुःख
हमारे निकेत में भर रहीं थीं
हे! ममतामयी हे! गृहजननी
तुम्हारी साँस छूट रही थी
जो थे खड़े सब सम्मुख
तुम्हारे उनके नयन-सिन्धु से
अश्रु की लहरें फूट रही थीं
फिर गंगाजल का पान किया
जाने का सबको भान दिया
अवनि को करती हुई नमन
किया भानु संग सुरधाम गमन
हे!पितामही ये शुभम कहता है
रवि संग जो जाता होगा
अवश्य बैकुंठ ही पाता होगा...

©शुभम कहता है...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

राधे-राधे!

रश्मि-राग

जग की प्रेम निशानी हो तुम राधिके कान्हा की ही दीवानी हो तुम राधिके      जिनमें घुल के कन्हैया भी उज्जवल हुए ऐसी यमुना का पानी हो तुम...